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कविता

प्राणों में बाँसुरी

दिनेश कुशवाह


कितने दिन हुए
धूल में खेलते किसी बालक को
उठाकर गोद में लिए हुए।

मुद्दत हुई अपने हाथ से पकाकर
किसी को जी भर खिलाकर
अपनी आत्मा को तृप्त किये हुए।

कितने दिन हुए
हाथ से बंदूक छुए
जबकि वह मुझे अच्छी लगती है।

किसी जूड़े में फूल गूँथे हुए
कितने दिन हुए
कितने दिन हुए
नदी में नहाये हुए।

कितने दिन हुए
न रोमांच हुआ
न जी टीसा
न प्राणों में बाँसुरी बजी।

कितने दिन हुए
न खुलकर रोया
न खुलकर हँसा
न घोड़े बेचकर सोया।


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